Friday, September 21, 2018

कर्मकांड- आचार्य आनंद पाण्डेय

_________*'कर्मकाण्ड'*_________
कर्मकाण्ड पोंगापंथी नहीं, मानव-जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। इसे जन-जन के हृदय में पहुँचाना पुरोहित जनों का उद्देश्य है।

मनुष्य के जीवन में घटनेवाली हर घटना एक *काण्ड है;* और हर घटना पर कर्त्तव्य का बोध कराना *कर्मकाण्ड है।* घटना हर परिवार में होती ही है। कहीं जन्म होता है, तो कोई मरता है। कहीं शादी होती है, तो किसी का अन्नप्राशन। किसी का गृहनिष्क्रमण है, तो किसी का गृह-प्रवेश। भारतीय मनीषियों ने मानव-जीवन में होनेवाली इन स्वाभाविक घटनाओं में से *पन्द्रह-सोलह को चुना* और इन अवसरों पर प्रत्येक परिवार में जाकर उस एक परमात्मा के आंशिक आकार का बीजारोपण करने के लिए *षोडश संस्कारों का विधान बनाया।* बच्चे-बचे में गर्भावस्था से ही एक परमात्मा का संस्कार डाल देना तथा उस एक परमात्मा को पाना ही तुम्हारा कर्म है- *इस कर्म का बोध करा देना, बस इतना ही शुद्ध 'कर्मकाण्ड' है।*

वैदिक युग में घर-घर जाकर शाश्वत एकमात्र परमात्मा का बोध कराना पुरोहित का कर्त्तव्य था। उपर्युक्त अवसरों पर *वेद के पुरुष-सूक्त की ऋचाएँ पढ़ी जाती थीं* और उनके साथ ही मनुष्य को प्रिय लगनेवाली वस्तुएँ, प्रिय भोजन, ताम्बूल, नये वस्त्र, सुगन्धि इत्यादि दी जाती थीं, जिससे इन वस्तुओं का प्रयोग करते समय उस एक परमात्मा की विभूतियों का स्मरण होता रहे।
      इन मन्त्रों के अंत में अर्घ्यं, पाद्यं, नैवेद्यं कहकर पुरोहित भगवान के हाथ-पाँव धुलाने की भावना करते हैं और हर वस्तु उन प्रभु के लिए हुआ करती है और कहीं न तो भगवान का हाथ-पाँव धुलाते हैं और न अपना धोते हैं बल्कि यजमान के उसके अबोध होने पर, जिस परिवार में काण्ड हुआ है, उसके मुखियाँ के हाथ-पाँव धुलाते हैं, जिसका आशय केवल इतना ही है कि हाथ धोते, पाँव धोते, पानी पीते, भोजन करते, वस्त्र-गन्ध-शय्या की बहुना मांगलिक हर वस्तु के उपयोग में उस परमप्रभु की विभिन्न अवस्थाओं (विभूतियों) का चिंतन होता रहे। *ये वस्तुएँ हृदय में स्थित परमात्मा को अर्पित की जाती हैं, हाथ-पाँव धुलाये जाते है,* जिससे बच्चा-बच्चा यह समझ ले कि कोई परमात्मा उनके हृदय के भीतर है जिसे देखना है, जिससे मानव मात्र, बच्चा-बच्चा उस सदा रहनेवाले शाश्वत परमात्मा की जानकारी प्राप्त कर ले। सार्वभौम कल्याण हो सके, इस लक्ष्य से भटक जाने का अवसर न मिल सके।

कालान्तर में ईश्वर को सदैव स्मरण रखनेवाली भावना के नाम पर बुद्धिजीवी वर्ग विशेष ने अपने जीने-खाने के लिए दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया को काण्ड की संज्ञा देकर बृहत् कर्मकाण्ड की रचना कर डाला, जिसमें शौच जाने का मन्त्र, भोजन करने का मन्त्र, विधि-निषेध और इनके पालन में भूल होने पर प्रायश्चित् रूप में दान लेने का क्षेत्र विस्तृत बनाया गया। *हृदयस्थ एक परमात्मा की खोज के स्थान पर बाहर अनेक देवी-देवताओं की पूजा को कर्म घोषित कर तत्सम्बन्धी पूजन विधियों का कर्मकाण्ड के रूप में प्रचार किया गया।*  परमात्मा को जानने की क्रिया छूट गई, अनुष्ठान और मन्त्र याद करना रह गया। *एक धर्म के स्थान पर संकीर्ण साम्प्रदायिक संगठन बन गये।* शाश्वत का पुजारी नश्वर के पीछे भागने लगा।

अण्डे की सुरक्षा के लिए जो खोल आरम्भ में आवश्यक होता है, बच्चे के आविर्भाव के पश्चात उसे तोड़ देना उससे भी जरुरी हो जाता है अन्यथा बच्चा उसमें घुट-घुटकर मर जायेगा। इसी प्रकार पूर्वजों ने जिन किन्ही परिस्थितियों में इन कुरीतियों को झेला, अब वे परिस्थितियाँ नहीं रहीं। *सामाजिक शिष्टाचार तथा रहन-सहन के प्रत्येक उपयोगी-अनुपयोगी नियमों को धर्म कहकर जनता को गुमराह करने का कोई औचित्य नहीं रहा।* सदियों पहले से सुखी भौतिक जीवन की व्यवस्था अब जनादेश पर आधारित राज्य के हाथ में चली गयी। *इसीलिए यह स्पष्ट करना जरुरी हो गया है कि धर्म के अन्तर्गत केवल एक बात आती है- आवागमनg से रहित शाश्वत शान्ति की खोज करना।* यह शान्ति सर्वत्र व्याप्त उस एक शाश्वत परमात्मा में ही है, जिसे खोजने के लिए प्रत्येक मनुष्य को अपने हृदय में उतरना है।🙏🙏🙏 आचार्य आनंद पांडे छपरा बिहार🙏🙏🙏 सभी ब्राहमण भाइयों को समर्पित

No comments:

Post a Comment

आचार्य पं श्री गजाधर उपाध्याय