Wednesday, September 19, 2018

सात्विक और राजस दान

क्योंकि दान का अर्थ ही है कि सौदा नहीं। उसी को देता है सात्विक व्यक्ति, जिससे लेने की कोई आकांक्षा नहीं। नहीं तो वह दान न .रहा। अगर तुमने कुछ भी प्रत्युत्तर मला, तो वह सौदा हो गया। तुमने अगर धन्यवाद भी मागा, तो वह सौदा हो गया। इसलिए गहरा दानी ऐसे देता है कि किसी को पता न चले।

मैंने सुना है कि एक गांव में अज्ञात दान की वर्ष में एक घड़ी आती थी, जहां गांव के सारे लोग अज्ञात दान करते थे, अनानिमस, कोई नाम नहीं लेता था। एक पेटी रखी रहती थी। पेटी के पास एक रीजेस्टर रखा रहता था। लोग पेटी में दान डाल देते, रजिस्टर में संख्या लिख देते, और लिख देते, अज्ञात व्यक्ति द्वारा, अनानिमस। मुल्ला नसरुद्दीन भी उस गांव में था और दान देने गया। किसी ने हजार दिए थे, किसी ने पांच हजार दिए थे, किसी ने दस हजार दिए थे। उसने भी पांच रुपए दिए। उसने डाल दिए पांच रुपए पेटी में। जिन्होंने पांच हजार दिए थे, उन्होंने भी छोटे—छोटे अक्षरों में लिखा था, उसने पांच रुपया इतने बड़े अक्षरों में लिखा कि पचास हजार भी देता, तो उतनी जगह में लिखे जा सकते थे। पांच रुपया! फिर उसने लिखा, मुल्ला नसरुद्दीन, इकतीस नंबर का मकान, फला—फलां मोहल्ला, सब पता—ठिकाना, और नीचे बड़े—बड़े अक्षरों में लिखा, अनानिमस, अज्ञात व्यक्ति के द्वारा।

आदमी दिखाना चाहता है। धन्यवाद पाना चाहता है। दो पैसा देता है, तो हजार गुना करके बताना चाहता है। उसकी चर्चा करता है, उसकी बात उठाता है। उसका प्रचार करता है कि मैंने इतना दान दे दिया।

अगर जरा—सी भी आकांक्षा प्रत्युत्तर की है कि कोई धन्यवाद दे, कोई कहे, वाह! वाह! खूब किया! बड़ी ऊंची बात की! तो कृष्ण कहते हैं, दान सात्विक न रहा; सात्विक की कोटि से नीचे गिर गया। फिर वह राजस हो गया।

जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को उद्देश्य में रखकर दिया गया, वह दान राजस है।

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आचार्य पं श्री गजाधर उपाध्याय