यह जो पूरब से संन्यास मिला है, यह संन्यास भविष्य में खो सकता है। क्योंकि संन्यास की अब तक जो व्यवस्था थी उस व्यवस्था के मूल आधार टूट गये हैं। इसलिए मैं देखता हूं इस संन्यास को बचाया जाना जरूरी है। यह बचाया जाएगा, पर आश्रमों में नहीं, वनों में नहीं, हिमालय पर नहीं।
वह तिब्बत का संन्यासी नष्ट हो गया। शायद गहरे से गहरा संन्यासी तिब्बत के पास था। लेकिन वह विदा हो रहा है, वह विदा हो जाएगा, वह बच नहीं सकता है। अब संन्यासी बचेगा फैक्ट्री में, दुकान में, बाजार में, स्कूल में, यूनिवर्सिटी में। जिंदगी जहां है, अब संन्यासी को वहीं खड़ा हो जाना पड़ेगा। और संन्यासी जगह बदल ले, इसमें बहुत अड़चन नहीं है। संन्यास नहीं मिटना चाहिए।
इसलिए मैं जिंदगी को भीतर से संन्यासी कर देने के पक्ष में हूं। जो जहां है वहीं संन्यासी हो जाए सिर्फ रूख बदले, मनःस्थिति बदले। हिंसा की जगह अहिंसा उसकी मनःस्थिति बने, परिग्रह की जगह अपरिग्रह उसकी समझ बने, चोरी की जगह अचैर्य उसका आनंद हो, काम की जगह अकाम पर उसकी दृष्टि बढ़ती चली जाए, प्रमाद की जगह अप्रमाद उसकी साधना बने, तो व्यक्ति जहां है, जिस जगह है, वही मनः स्थिति बदल जाएगी। और फिर सब बदल जाता है।
इसलिए मैं जिन्हें संन्यासी कह रहा हूं वे जगत से भागे हुए लोग नहीं हैं। वे जहां हैं वहीं रहेंगे। और यह बड़े मजे की बात है, आज तो जगत से भागना ज्यादा आसान है। आज जगत में खड़े होकर संन्यास लेना बहुत कठिन है। भाग जाने में तो अड़चन नहीं है, लेकिन एक आदमी जूते की दुकान करता है और वहीं संन्यासी हो गया है तो बड़ी अड़चने हैं। क्योंकि दुकान वही रहेगी, ग्राहक वही रहेंगे, जूता वही रहेगा, बेचना वही है, बेचने वाला, लेने वाला सब वही है। लेकिन एक आदमी अपनी पूरी मनःस्थिति बदलकर वहां जी रहा है। सब पुराना है। सिर्फ एक मन को बदलने की आकांक्षा से भरा है। इस सब पुराने के बीच इस मन को बदलने में बडी दुरूहता होगी। यह तपश्चर्या है। इस तपश्चर्या है। इस तपश्चर्या से गुजरना अद्भुत अनुभव है। और ध्यान रहे, जितना सस्ता संन्यास मिल जाए उतना गहरा नहीं हो पाता, जितना महंगा मिले उतना ही गहरा हो जाता है। संसार में संन्यासी होकर खड़ा होना बड़ी तपश्चर्या की बात है।
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