Tuesday, September 18, 2018

ज्ञाता और ज्ञेय

जब भी तुम कुछ जानते हो, तुम उसे ज्ञान के द्वारा, जानने के द्वारा जानते हो। ज्ञान की क्षमता के द्वारा ही कोई विषय तुम्‍हारे मन में पहुंचता है। तुम एक फूल को देखते हो; तुम जानते हो कि यह गुलाब का फूल है। गुलाब का फूल बाहर है और तुम भीतर हो। तुमसे कोई चीज गुलाब तक पहुँचती है। तुमसे कोई चीज फूल तक आती है। तुम्‍हारे भीतर से कोई उर्जा गति करती है। गुलाब तक आती है, उसका रूप रंग और गंध ग्रहण करती है और लौट कर तुम्‍हें खबर देती है कि यह गुलाब का फूल है। सब ज्ञान, तुम जो भी
जानते हो, जानने की क्षमता के द्वारा तुम पर प्रकट होता है। जानना तुम्‍हारी क्षमता है; सारा ज्ञान इसी क्षमता के द्वारा अर्जित किया जाता है।
      लेकिन यह जानना दो चीजों को प्रकट करता है—ज्ञात को और ज्ञाता को। जब भी तुम गुलाब के फूल को जानते हो, तब अगर तुम
ज्ञाता को, जो जानता है उसको भूल जाते हो। तो तुम्‍हारा ज्ञान आधा ही है। तो गुलाब को जानने में तीन चीजें घटित हुई: ज्ञेय यानी गुलाब, ज्ञाता यानी तुम और दोनों के बीच का संबंध यानी ज्ञान।
      तो जानने की घटना को तीन बिंदुओं में बांटा जा सकता है। ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान। ज्ञान दो बिंदुओं के बीच, ज्ञाता और ज्ञेय के बीच सेतु की भांति है। सामान्‍यत: तुम्‍हारा ज्ञान सिर्फ ज्ञेय को, विषय को प्रकट करता है। और ज्ञाता जानने वाला अप्रकट रह जाता है। सामान्‍यत: तुम्‍हारे ज्ञान में एक ही तीर होता है। वह तीर गुलाब की तरफ तो जाता है। लेकिन वह कभी तुम्‍हारी तरफ नहीं जाता। और जब तक वह तीर तुम्‍हारी तरफ भी न जाने लगे तब तक ज्ञान तुम्‍हें संसार के संबंध में तो जानने देगा। लेकिन वह तुम्‍हें स्‍वयं को नहीं जानने देगा।
      ध्‍यान की सभी विधियां जानने वाले को प्रकट करने की विधियां है। जार्ज गुरजिएफ इसी तरह की एक विधि का प्रयोग करता था। वह इसे आत्‍म-स्‍मरण करता था। उसने कहा है कि जब तुम किसी चीज को जान रहे हो तो सदा जानने वाले को भी जानो। उसे विषय में मत भुला दो; जानने वाले को भी स्‍मरण रखो।
      अभी तुम मुझे सुन रहे हो। जब तुम मुझे सुन रहे हो तो तुम दो ढंगों से सुन सकते हो। एक कि तुम्‍हारा मन सिर्फ मुझ पर केंद्रित हो। तब तुम सुनने वाले को भूल जाते हो। तब बोलने वाला तो जाना जाता है, लेकिन सुनने वाला भुला दिया जाता है। गुरजिएफ कहता था कि सुनते हुए बोलने वाले के साथ-साथ सुनने वाले को भी जानों।
      तुम्‍हारे ज्ञान को द्विमुखी होना चाहिए। वह एक साथ दो बिंदुओं की ओर, ज्ञाता और ज्ञेय दोनों की और प्रवाहित हो। उसे एक ही दिशा में सिर्फ विषय की दिशा में नहीं  बहना चाहिए। उसे एक साथ दो दिशाओं में, ज्ञेय और ज्ञाता की तरफ प्रवाहित होना चाहिए। इसे ही आत्‍मा–स्‍मरण कहते है। फूल को देखते हुए उसे भी स्‍मरण रखो जो देख रहा है।
      यह कठिन है। क्‍योंकि अगर तुम प्रयोग करोगे, अगर देखने वाले को स्‍मरण रखने की चेष्‍टा करोगे तो तुम गुलाब को भूल जाओगे। तुम एक ही दिशा में देखने के ऐसे आदी हो गए हो कि साथ-साथ दूसरी दिशा को भी देखने में थोड़ा समय लगाता है। अगर तुम ज्ञाता के प्रति सजग होते हो तो ज्ञेय विस्‍मृत हो जाएगा। और अगर तुम ज्ञेय के प्रति सजग होते हो तो ज्ञाता विस्‍मृत हो जाएगा। लेकिन थोड़े प्रयेत्‍न से तुम धीरे-धीरे दोनों के प्रति सजग होने में समर्थ हो जाओगे।
      इसे ही गुरजिएफ आत्‍म-स्‍मरण कहता है। यह एक बहुत प्राचीन विधि है। बुद्ध ने इसका खूब उपयोग किया था। फिर गुरजिएफ इस विधि को पश्‍चिमी जगत में लाया। बुद्ध इसे सम्‍यक स्‍मृति कहते थे। बुद्ध ने कहा कि तुम्‍हारा मन सम्‍यक रूपेण स्‍मृतिवान नहीं है। अगर वह एक ही बिंदु को जानता है। उसे दोनों बिंदुओं को जानना चाहिए।
      और तब एक चमत्‍कार घटित होता है। अगर तुम ज्ञेय और ज्ञाता दोनों के प्रति बोधपूर्ण हो तो अचानक तुम तीसरे हो जाते हो। तुम दोनों से अलग तीसरे हो जाते हो। ज्ञेय और ज्ञाता दोनों को जानने के प्रयत्‍न में तुम तीसरे हो जाते हो। साक्षी हो जाते हो। तत्‍क्षण एक तीसरी संभावना प्रकट होती है—साक्षी आत्‍मा का जन्‍म होता है। क्‍योंकि तुम साक्षी हुए बिना दोनों को कैसे जान सकते हो? अगर तुम ज्ञाता हो तो तुम एक बिंदु पर स्‍थिर हो जाते हो। उससे बंध जाते हो। आत्‍मा-स्‍मरण में तुम ज्ञाता के स्‍थिर बिंदु से अलग हो जाते हो। उससे बंध जाते हो। आत्‍म-स्‍मरण में तुम ज्ञाता के एक अलग हो जाते हो। तब ज्ञाता तुम्‍हारा मन है और ज्ञेय संसार है और तुम तीसरा बिंदू हो जाते हो—चैतन्‍य, साक्षी, आत्‍मा।
      इस तीसरे बिंदु का अतिक्रमण नहीं हो सकता। और जिसका अतिक्रमण नहीं हो सकता,जिसके पार नहीं जाया जा सकता, वह परम है। जिसका अतिक्रमण हो सकता है वह महत्‍वपूर्ण नहीं है। क्‍योंकि वह तुम्‍हारा स्‍वभाव नहीं है। तुम उसका अतिक्रमण कर सकतेजब भी तुम कुछ जानते हो, तुम उसे ज्ञान के द्वारा, जानने के द्वारा जानते हो। ज्ञान की क्षमता के द्वारा ही कोई विषय तुम्‍हारे मन में पहुंचता है। तुम एक फूल को देखते हो; तुम जानते हो कि यह गुलाब का फूल है। गुलाब का फूल बाहर है और तुम भीतर हो। तुमसे कोई चीज गुलाब तक पहुँचती है। तुमसे कोई चीज फूल तक आती है। तुम्‍हारे भीतर से कोई उर्जा गति करती है। गुलाब तक आती है, उसका रूप रंग और गंध ग्रहण करती है और लौट कर तुम्‍हें खबर देती है कि यह गुलाब का फूल है। सब ज्ञान, तुम जो भी
जानते हो, जानने की क्षमता के द्वारा तुम पर प्रकट होता है। जानना तुम्‍हारी क्षमता है; सारा ज्ञान इसी क्षमता के द्वारा अर्जित किया जाता है।
      लेकिन यह जानना दो चीजों को प्रकट करता है—ज्ञात को और ज्ञाता को। जब भी तुम गुलाब के फूल को जानते हो, तब अगर तुम
ज्ञाता को, जो जानता है उसको भूल जाते हो। तो तुम्‍हारा ज्ञान आधा ही है। तो गुलाब को जानने में तीन चीजें घटित हुई: ज्ञेय यानी गुलाब, ज्ञाता यानी तुम और दोनों के बीच का संबंध यानी ज्ञान।
      तो जानने की घटना को तीन बिंदुओं में बांटा जा सकता है। ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान। ज्ञान दो बिंदुओं के बीच, ज्ञाता और ज्ञेय के बीच सेतु की भांति है। सामान्‍यत: तुम्‍हारा ज्ञान सिर्फ ज्ञेय को, विषय को प्रकट करता है। और ज्ञाता जानने वाला अप्रकट रह जाता है। सामान्‍यत: तुम्‍हारे ज्ञान में एक ही तीर होता है। वह तीर गुलाब की तरफ तो जाता है। लेकिन वह कभी तुम्‍हारी तरफ नहीं जाता। और जब तक वह तीर तुम्‍हारी तरफ भी न जाने लगे तब तक ज्ञान तुम्‍हें संसार के संबंध में तो जानने देगा। लेकिन वह तुम्‍हें स्‍वयं को नहीं जानने देगा।
      ध्‍यान की सभी विधियां जानने वाले को प्रकट करने की विधियां है। जार्ज गुरजिएफ इसी तरह की एक विधि का प्रयोग करता था। वह इसे आत्‍म-स्‍मरण करता था। उसने कहा है कि जब तुम किसी चीज को जान रहे हो तो सदा जानने वाले को भी जानो। उसे विषय में मत भुला दो; जानने वाले को भी स्‍मरण रखो।
      अभी तुम मुझे सुन रहे हो। जब तुम मुझे सुन रहे हो तो तुम दो ढंगों से सुन सकते हो। एक कि तुम्‍हारा मन सिर्फ मुझ पर केंद्रित हो। तब तुम सुनने वाले को भूल जाते हो। तब बोलने वाला तो जाना जाता है, लेकिन सुनने वाला भुला दिया जाता है। गुरजिएफ कहता था कि सुनते हुए बोलने वाले के साथ-साथ सुनने वाले को भी जानों।
      तुम्‍हारे ज्ञान को द्विमुखी होना चाहिए। वह एक साथ दो बिंदुओं की ओर, ज्ञाता और ज्ञेय दोनों की और प्रवाहित हो। उसे एक ही दिशा में सिर्फ विषय की दिशा में नहीं  बहना चाहिए। उसे एक साथ दो दिशाओं में, ज्ञेय और ज्ञाता की तरफ प्रवाहित होना चाहिए। इसे ही आत्‍मा–स्‍मरण कहते है। फूल को देखते हुए उसे भी स्‍मरण रखो जो देख रहा है।
      यह कठिन है। क्‍योंकि अगर तुम प्रयोग करोगे, अगर देखने वाले को स्‍मरण रखने की चेष्‍टा करोगे तो तुम गुलाब को भूल जाओगे। तुम एक ही दिशा में देखने के ऐसे आदी हो गए हो कि साथ-साथ दूसरी दिशा को भी देखने में थोड़ा समय लगाता है। अगर तुम ज्ञाता के प्रति सजग होते हो तो ज्ञेय विस्‍मृत हो जाएगा। और अगर तुम ज्ञेय के प्रति सजग होते हो तो ज्ञाता विस्‍मृत हो जाएगा। लेकिन थोड़े प्रयेत्‍न से तुम धीरे-धीरे दोनों के प्रति सजग होने में समर्थ हो जाओगे।
      इसे ही गुरजिएफ आत्‍म-स्‍मरण कहता है। यह एक बहुत प्राचीन विधि है। बुद्ध ने इसका खूब उपयोग किया था। फिर गुरजिएफ इस विधि को पश्‍चिमी जगत में लाया। बुद्ध इसे सम्‍यक स्‍मृति कहते थे। बुद्ध ने कहा कि तुम्‍हारा मन सम्‍यक रूपेण स्‍मृतिवान नहीं है। अगर वह एक ही बिंदु को जानता है। उसे दोनों बिंदुओं को जानना चाहिए।
      और तब एक चमत्‍कार घटित होता है। अगर तुम ज्ञेय और ज्ञाता दोनों के प्रति बोधपूर्ण हो तो अचानक तुम तीसरे हो जाते हो। तुम दोनों से अलग तीसरे हो जाते हो। ज्ञेय और ज्ञाता दोनों को जानने के प्रयत्‍न में तुम तीसरे हो जाते हो। साक्षी हो जाते हो। तत्‍क्षण एक तीसरी संभावना प्रकट होती है—साक्षी आत्‍मा का जन्‍म होता है। क्‍योंकि तुम साक्षी हुए बिना दोनों को कैसे जान सकते हो? अगर तुम ज्ञाता हो तो तुम एक बिंदु पर स्‍थिर हो जाते हो। उससे बंध जाते हो। आत्‍मा-स्‍मरण में तुम ज्ञाता के स्‍थिर बिंदु से अलग हो जाते हो। उससे बंध जाते हो। आत्‍म-स्‍मरण में तुम ज्ञाता के एक अलग हो जाते हो। तब ज्ञाता तुम्‍हारा मन है और ज्ञेय संसार है और तुम तीसरा बिंदू हो जाते हो—चैतन्‍य, साक्षी, आत्‍मा।
      इस तीसरे बिंदु का अतिक्रमण नहीं हो सकता। और जिसका अतिक्रमण नहीं हो सकता,जिसके पार नहीं जाया जा सकता, वह परम है। जिसका अतिक्रमण हो सकता है वह महत्‍वपूर्ण नहीं है। क्‍योंकि वह तुम्‍हारा स्‍वभाव नहीं है।

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आचार्य पं श्री गजाधर उपाध्याय